वेदों में जल संसाधनों यथा कुओं, नहरों एवं बॉंधों का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। कूप (कुऑं), कवट (खोदकर बनाये गये गढढे) का उल्लेख ऋगवेद के कई स्थलों पर है। कुओं से पानी, पत्थर के बने चक्के (अश्मचक्र) से निकाला जाता था, जिसमें रस्सियों के सहारे जल भरने वाले कोष बँधे रहते थे। कूपों का उपयोग मनुष्यों तथा पशुओं के निमित्त जल निकालने के लिए ही नहीं किया जाता था, वरन् कभी-कभी इनसे सिंचाई भी की जाती थी। ऋगवेद में शब्द अवता का भी उल्लेख है जो कि कुएं का प्रतीक है एक अन्य रिचा में कुल्या शब्द भी आया है, जिसका तात्पर्य कृत्रिम नहर से है। यजुर्वेद में नहरों के खोदने के प्रसंग आये हैं। देवताओं के गुरु बृहस्पति ने भी कहा है कि बॉंधों एवं नहरों की मरम्मत पवित्र कार्य है। उनका उत्तरदायित्व राज्य के धनी लोगों का होना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि भारत में प्राचीन काल से ही सिंचाई संसाधनों का उपयोग हो रहा है तथा इनका काफी महत्व रहा है।
3150 वर्ष ईसा पूर्व महाभारत काल में खेती की सिंचाई करने का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में मिला है इस संदर्भ में जब ऋषिराज नारद राजा युद्धिष्ठर से मिलने उनके राज्य में आते है, और उनसे पूछते है कि क्या आपके राज्य में किसान हृष्टपुष्ट एवं समृद्धशाली है? क्या जलाशय बृहद और पर्याप्त है तथा पानी से पूरी तरह भरे हुए है एवं राज्य के विभिन्न भागों में पानी का वितरण हो रहा है? यह इस तथ्य का परिचायक है कि महाभारत काल में भी सिंचाई व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान दिया जाता था।
सिंचाई एवं जल संसाधन विभाग उत्तर प्रदेश अपने गठन के समय से ही बॉंधों, नहरों एवं कुओं के उन्नतशील रूप (नलकूपो) के निर्माण व मरम्मत आदि कार्यो को सफलतापूर्वक निष्पादित करते हुए प्रदेश की जनता को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने एवं कालान्तर में बाढ निरोधक कार्यो को निष्पादित कर बाढ की विभीषिका से बचाने हेतु सदैव प्रयासरत रहता है।